दिल्ली चर्चा वाली

जली हुई काली दीवारें, कालिख से लिपटे छत से लटक रहे पंखे, जलकर काले हो चुके स्टील के बर्तन और घर की फर्श पर चारों तरफ बिखरी राख। ये मंजर हाल ही में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हाल ही हुए दंगों में जलाए गए घरों का है। दंगों के बाद अब जब वे अपने जीवन को फिर से पटरी पर लाने की उम्मीद कर रहे थे कि यह महामारी आ गई, जिससे दंगा पीड़ितों पर दोहरी मार पड़ी है।
दिसंबर माह से दिल्ली के लोगों ने लगातार दिल्ली में तनाव का माहौल झेला है। पहले चुनाव की सरगर्मी में गर्म होते नेताओं के तेवर व उस से उपजे भारी तनाव। फिर दंगों की आग, अफवाहों के साए और अब कोरोना के कारण एक लंबा लाकडाउन। यह सब इतने कम समय में इतनी तेजी से हुआ कि अगर लोगों का मनोस्तिथि का ब्यौरा लिया जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा कि काफी हद तक दिल्लीवासी अवसाद से गुजर रहे हैं। जाहिर है एक सभ्य समाज में उपजे इस तरह के तनाव आने वाली पीढ़ी के लिए मानसिक दुष्प्रभाव का कारण बनेंगे।
इन घटनाक्रमों में सबसे ज्यादा प्रभावित वह लोग हुए जिन्होंने कुछ दिन पहले ही दिल्ली में हुए दंगों का दंश झेला। उन हजारों लोगों के लिए यह समय उस परिस्थिति से उभरने का था, लेकिन वे उभरने की जगह लाकडाउन की चपेट में जा घिरे। कितना मुश्किल होगा इस परिस्थिति को महसूस करना। आम तौर पर देश में जहां भी दंगे हुए वहां दंगों के बाद एक लंबा राहत का समय होता है। सरकार द्वारा राहत कैंप बनाए जाते हैं जिस में दंगा पीड़ितों को राहत मिलने तक रखा जाता है। फिर उन जगहों पर नेताओं और समाजसेवियों के आने का कभीकभार सिलसिला चलने लगता है। यही राहत का समय होता है जब दंगा पीड़ित लोग खुद को फिर से संतुलित करने के लिए संघर्ष करते है। यह संतुलन सिर्फ आर्थिक ही नहीं मानसिक तौर पर भी जरूरी होता है।
23 फरवरी से शुरू हुए दंगों में 53 लोगों ने अपनी जान गंवाई तथा कई घायल हुए। कई लोगों ने अपने घरसंपत्ति को जल कर खाक होते देखा। गरीब लोगों के लिए यह सब कुछ छीन लिए जाने के बराबर था। ऐसे में हजारों लोग बेघर हुए। उनमें से कुछ अपने गांवों की तरफ वापस लौटे, लेकिन जिन के लिए गांव में भी कुछ बचा नहीं था वे वहीं मुस्तफाबाद के ईदगाह में बने राहत कैंप में रहने को मजबूर हुए। लगभग 1000 की संख्या के आसपास लोग यहीं राहत कैम्प में शरण लेने को मजबूर हुए। जो लोग सरकार द्वारा बनाए इन राहत कैंप की दरियादिली के कायल हैं वे यह जरूर समझ लें की यह मात्र खाना, कम्बल और टेंट है। किंतु दंगा पीड़ित इंसानी जीवन सिर्फ खाना, कम्बल या टेंट नहीं।
24 तारीख को पूरे देश में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कोरोना के संक्रमण से बचाव के लिए लाकडाउन के निर्देश दिए गए। लोगों को सामाजिक दूरी बनाने को कहा गया। जाहिर सी बात है इस की चपेट में राहत कैंप में रह रहे लोगों का आना लाजमी था और हुआ भी यही, सभी दंगा पीड़ित लोगों को बिना तैयारी तुरंत अगले दिन यानी गुरुवार को राहत कैंप से खाली कराया गया। उन्हें सरकार ने कोई वैकल्पिक रास्ते नहीं बताए। उन्हें उनके बदतर हाल में यूं ही छोड़ दिया गया। कई लोग वहीं अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए। कई आसपास की मस्जिदों में जाने को मजबूर हुए। तो कई लोग सड़कों में रहने को।
दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार को वैश्विक महामारी कोविड-19 के मद्देनजर दिल्ली के मुस्तफाबाद ईदगाह स्थित राहत कैंप में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के निर्देश दिए हैं, जहां दिल्ली हिंसा के पीड़ित रह रहे हैं। अदालत ने राज्य सरकार से वहां पर डॉक्टरों, जन स्वास्थ्य अधिकारियों और आपात चिकित्सा उपकरणों की सुविधाएं उपलब्ध कराने को कहा है।बता दें कि पिछले महीने उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए सांप्रदायिक हिंसा की वजह से कई लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ गया था। ऐसे कई लोग अब तक राहत कैंपों में ही दिन गुजार रहे हैं। लेकिन, इसी दौरान कोरोना के कहर ने उन सबकी जिंदगी के लिए एक नई मुसीबत पैदा कर दी है।वहीं साथ में द गवर्मेंट आफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी दिल्ली और ईडीएमसी को एकएक दंगा पीड़ितों की साफ-सफाई और उन के रहने के जगह की साफ सफाई के निर्देश दिए, लेकिन सवाल यह बनता है कि क्या सिर्फ राशन, सफाई और अस्थाई रहने की व्यवस्था से इन का जीवन पटरी पर लौट आएगा। आखिर यह कैसे अपने मनोस्तिथि को दोबारे से पहले जैसे पटरी पर ला पाएंगे?
इस बर्बर प्रकरण को देख कर लगता है कि सरकार और व्यवस्था के लिए यह दंगा पीड़ित जिम्मेदारी कम बोझ ज्यादा हैं। मानो व्यवस्था की सारी संवेदनशीलता मरती चली जा रही है। वह जैसे तेसे कर इन्हें अपने पल्ले से हटा लेना चाहती है। वरना इन्हें राहत कैंप से हटाने से पहले इन के लिए रहने की उचित व्यवस्था की जाती। आज जहां इन्हें सही मायनों में मनोवैज्ञानिक कंसल्टेंट की आवश्यकता थी वहां इन की जान इतनी सस्ती है कि यह भूखे रहने को मजबूर हैं।    


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